Monday, June 2, 2014

वो अनकही सी बात...

"वो चुप चाप खड़े एक कोने में
घंटों बस निहारती थी
उस शेल्फ पर पड़ी किताबों के धीर को
निहारना तक तो ठीक था,
पर जब जाती थी उसके करीब तुम
तो सोचता था , की काश,
काश की मेरी धधकन उन किताबों में समां जाती
जान पाति तुम की तुम्हरे देखने भर से
कैसे मेरा heart rate कर लेता था normal  को पार

सोचता था , तुम्हे घंटों निहारते हुए उस library में मैं
की ऐसी कोंसी थी बातें , जो करती थी तुम उन किताब के पन्नों से
देखा तो होगा ही तुमने मुझे वहां बैठे हुए, मुझसे आके कुछ कहती, में सुनता बिन पलक झपकाए

कभी कभी ये नाचीज़ सोच बैठता की सिर्फ मेरी तरीकें हैं मेरी attention पाने के,
शायद  पगला सा जाता है ये मनन , जब खुद के लिए धधकना बंद कर दे...

जाने कितने ही पन्ने यूँ ही पलते हिं मैंने,
कितनी ही पंक्तियाँ हैं लिख डाली
तुम्हे ताकते ताकते, इसी कुर्सी पर बैठे
शायद ग़ालिब भी एक बार इस आशिक की शायरी ज़रूर देखना चाहेंगे..

हाँ शायरी से याद आया,
वो जो ग़ालिब की किताब में वो शायरी का पन्ना मिला था तुम्हे
जाना चाहती थी उस शायर को जो जाने कैसे करता था किसी की हया से मोहब्बत,
डूब गया था किसी की आँखों की गहराई में इस कदर की मुरजिम वापस निकलने को न था तयार..

दाल दिया था उस किताब में सोचकर की शयद जान लो की वो मुरजिम मैं ही था ...और वो आँखें थी तुम्हारी, वो हया थी तुम्हारी...
काश खुद देने की हिम्मत होती
जब कुछ दिन आई नहीं थी तुम लिब्ररी मैं, तो मचला सा जा रहा था ये मनन, ज़िन्दगी में पहली बार तुम्हारे घर फोने लगाया था मैंने उस दिन.
याद है वो, " can you please return the book you've issued, I need it for my research"
बस बहाना था तुम्हे बुलाने का...

इतना कुछ था कहने को तुमसे ,जानता नहीं था की कैसे करूँ हाल-इ-दिल बयां मैं..
बस, येही कलम थी, और येही पन्ने, इस आशिक का बयां..
बहरहाल सुना है, की कुछ दिनों में लाल जोड़ा पहनने वाली हो तुम, क्या ये...
वाही जोड़ा है जिसमें हजारों बार देखा है मैंने तुम्हे?
हां.. सपने भी ना..."

आज ये Diary मिली है उसकी,
बहार उसे देखने गयी,
तो जनाब नाच रहे थे, बारातियों के साथ...

घर के रहते थे तुम इतने पास
फिर भी फोएँ घुमाया था जिस दिन
सोचा था मिएँ शायद कुछ ख़ास बोलना चाहते थे तुम
हां.. ख़ास..

किताबें सिर्फ पढ़ती थी, ताकने का शौंक नहीं है मुझे,
पर याद हो , तू तुम बैठा करते थे किताबों के पीछे वाली row मैं,
कहते हो की मुझे देखते थे, तो कभी मेरी उस तिर्चि नज़र को क्यों नहीं देख पाए जो तुम्हे मुझे देखता देख , मंद मंद मुस्काती थी...
जान तो गयी थी, की ग़ालिब साहब की आड़ में तुम्ही शायरी को अपना अंदाज़े सन्देश बनोगे..
पर इंतज़ार था वो सब तुम्हारी जुबान पे आने का...
इतनी हिम्मत नहीं थी की खुद का हाले दिल बयां का पाति तुमसे,

हाँ, लाल जोड़े में ही कड़ी हूँ मैं..
जानती नहीं , की तुम्हारे खवाबों वाला ही है के नहीं...
पर हाँ. जिसके लिए पहना है,
ये ज़रूर मालूम है , की वो...
वो नहीं है जिसे खवाबों में मैं  देखती आई थी...

हां... सपने भी ना...

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